क्रायोजेनिक इंजन का इतिहास और भारत का संघर्ष
भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत से ही एक बड़ी चुनौती सामने आई थी — क्रायोजेनिक इंजन की कमी। 1990 के दशक में, भारत ने जीएसएलवी (भूस्थैतिक उपग्रह प्रक्षेपण यान) विकसित करने की योजना बनाई, जिसके लिए क्रायोजेनिक इंजन की आवश्यकता थी। इस तकनीक का इस्तेमाल अत्यधिक ठंडे ईंधन (हाइड्रोजन और ऑक्सीजन) से किया जाता है, जो भारी उपग्रहों को भूस्थैतिक कक्षा में स्थापित करने के लिए आवश्यक है।
लेकिन, 1991 में भारत के रूस के साथ किए गए समझौते के बाद अमेरिकी दबाव के कारण यह तकनीक भारत तक पहुंचने से रोक दी गई। अमेरिका ने इसे मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था (MTCR) का उल्लंघन मानते हुए रूस को इस तकनीक का हस्तांतरण करने से मना कर दिया। इससे भारत का अंतरिक्ष कार्यक्रम खतरे में पड़ गया। रूस ने भारत को केवल चार इंजन देने का प्रस्ताव रखा, जो दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता के लिए अपर्याप्त थे।
भारत की स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन यात्रा
इस स्थिति ने भारत को एक नई राह पर चलने के लिए प्रेरित किया — स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने की दिशा में। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने इस चुनौती को स्वीकार किया और तकनीकी अड़चनों के बावजूद काम करना शुरू किया।
क्रायोजेनिक तकनीक बेहद जटिल होती है, जिसमें -253 डिग्री सेल्सियस जैसे अत्यधिक ठंडे तापमान पर काम करना पड़ता है। इसके लिए विशेष मिश्र धातुएं, सटीक इंजीनियरिंग और उन्नत परीक्षण सुविधाओं की आवश्यकता होती है। इसरो ने तमिलनाडु के महेंद्र गिरि में एक अत्याधुनिक परीक्षण केंद्र स्थापित किया और वैज्ञानिकों ने कठिन परिश्रम और निरंतरता से इस तकनीक को विकसित करना शुरू किया।
धीरे-धीरे, इसरो ने कई असफलताओं का सामना करते हुए सफलता प्राप्त की। 5 जनवरी 2014 को भारत ने अपने पहले स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के साथ जीएसएलवी-डी5 का सफल प्रक्षेपण किया, और इसरो ने भारत को क्रायोजेनिक क्लब में शामिल कर लिया। इसके बाद, इस इंजन को और उन्नत किया गया, जैसे कि CE-20 इंजन, जो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिए और भी महत्वपूर्ण साबित हुआ।
जेट इंजन पर भारत की आत्मनिर्भरता
अब, भारत ने जेट इंजन निर्माण में भी आत्मनिर्भरता हासिल करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। 2021 में हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) ने अमेरिकी कंपनी GE के साथ 99 जेट इंजनों की आपूर्ति के लिए करार किया था। हालांकि, इन इंजनों की आपूर्ति में GE ने बड़ी देरी कर दी, और 2023 से शुरू होने वाली डिलीवरी में भी काफी समय लगा। इसी कारण भारत ने अब तय किया है कि जेट इंजन का निर्माण भी देश में ही किया जाएगा, ताकि इसे आत्मनिर्भर बनाया जा सके।
यह कदम भारतीय रक्षा क्षेत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। जैसे इसरो ने क्रायोजेनिक इंजन की स्वदेशी तकनीक को विकसित किया था, ठीक वैसे ही भारतीय रक्षा क्षेत्र अब जेट इंजन के निर्माण में भी आत्मनिर्भर बनने की दिशा में काम करेगा। यह कदम भारत को न केवल सैन्य मामलों में आत्मनिर्भर बनाएगा, बल्कि भारत के रक्षा उद्योग को भी एक नई दिशा और मजबूती प्रदान करेगा।
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