दशकों की मेहनत और अरबों डॉलर का निवेश
चीन ने 1980 के दशक से ही लड़ाकू विमान इंजन की तकनीक पर काम शुरू किया था। लेकिन यह राह आसान नहीं रही। तकनीक जटिल थी और विदेशी सहायता सीमित। ऐसे में चीन ने एक लंबी रणनीति अपनाई— बेशुमार पैसा, बड़ा विजन और जबरदस्त धैर्य रखा।
अनुमानों के मुताबिक, पिछले 30 सालों में चीन ने इंजन डेवलपमेंट पर करीब 25 से 30 अरब डॉलर खर्च किए हैं। यह निवेश अब रंग लाता दिख रहा है। चीन ने WS-10 और WS-15 जैसे अपने घरेलू इंजन विकसित कर लिए हैं, जिनका इस्तेमाल J-10, J-11, J-16 और यहां तक कि स्टील्थ फाइटर J-20 में भी हो रहा है।
रिवर्स इंजीनियरिंग और साइबर जासूसी का सहारा
कई रिपोर्ट ये बतलाती हैं की तकनीकी आधार बनाने के लिए चीन ने एक और रास्ता चुना रिवर्स इंजीनियरिंग का। रूस के AL-31 इंजन और अमेरिका के F119 इंजन की तकनीक को उसने बारीकी से समझा और कई बार इन तकनीकों को कथित तौर पर चुराने की कोशिश भी की।
साइबर जासूसी और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के ज़रिए चीन ने उन बारीकियों को हासिल किया जो आमतौर पर सालों की R&D से मिलती हैं। चीन इसी तरह से लड़ाकू विमानों के इंजन तैयार करने में सफल रहा हैं और अब इसका उत्पादन भी कर रहा हैं।
प्रोडक्शन लाइन और आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता कदम
अब चीन के पास WS-10 इंजन की बड़ी प्रोडक्शन लाइन है, जिससे वह घरेलू स्तर पर अपने लड़ाकू विमानों को इंजन दे पा रहा है। इससे वह रूस पर अपनी निर्भरता धीरे-धीरे कम कर रहा है। सबसे अहम बात यह है कि चीन दावा कर रहा है कि उसने WS-15 इंजन का भी विकास पूरा कर लिया है — यह इंजन J-20 स्टील्थ फाइटर को पूरी ताकत से उड़ान देने में सक्षम होगा, और यह पूरी तरह से मेड इन चाइना होगा।
वैज्ञानिकों की फौज और सरकार का मजबूत सपोर्ट
चीन ने लड़ाकू विमान इंजन तकनीक को "राष्ट्रीय सम्मान" से जोड़ा है। सैकड़ों इंजीनियर, दर्जनों विश्वविद्यालय, और रक्षा से जुड़ी सरकारी कंपनियों को एक मिशन पर लगा दिया गया — टर्बाइन टेक्नोलॉजी में महारत हासिल करना। सरकार ने रिसर्च ग्रांट्स, स्पेशल प्रोजेक्ट्स, और इंटरनेशनल पार्टनरशिप्स के ज़रिए यह सुनिश्चित किया कि चीन इस क्षेत्र में किसी भी कीमत पर पिछड़ा न रहे।
0 comments:
Post a Comment