अमेरिका या चीन? भारत के लिए असली फायदा किसके साथ?

नई दिल्ली। वैश्विक राजनीति और आर्थिक रिश्तों की बिसात पर भारत एक ऐसा खिलाड़ी है जो अब सिर्फ़ चाल नहीं चलता, बल्कि चालों को दिशा भी देने लगा है। लेकिन इस नई ताक़त के साथ एक बड़ा सवाल खड़ा होता है की भारत को अपने रणनीतिक और आर्थिक हितों के लिए अमेरिका के करीब जाना चाहिए या चीन के साथ रिश्तों को फिर से परिभाषित करना चाहिए।

भारत-अमेरिका व्यापारिक रिश्ते क्यों फंसी?

भारत और अमेरिका के बीच व्यापार समझौता लंबे समय से लटका हुआ है। पूर्व वित्त सचिव सुभाष गर्ग ने बताया कि ट्रंप सरकार के 50% तक के एकतरफा टैरिफ ने भारत को वार्ता की मेज से लगभग हटा दिया है। भारत ने भले ही आधिकारिक रूप से बातचीत बंद न की हो, लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में कोई प्रगति नहीं हो रही।

इसके साथ ही उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि भारत को कुछ क्षेत्रों जैसे जीएम तेल और डेयरी में अपने रुख पर फिर से विचार करना चाहिए। गर्ग के मुताबिक, इन उत्पादों से भारतीय किसानों को वैसा नुकसान नहीं होता जैसा अक्सर कहा जाता है। उपभोक्ताओं को विकल्प मिलना चाहिए, न कि सख्त प्रतिबंध।

चीन के साथ रिश्तों पर पुनर्विचार की ज़रूरत?

चीन को लेकर भारत की नीति भी अब बहस के घेरे में है। पूर्व वित्त सचिव सुभाष गर्ग का मानना है कि भारत ने रणनीतिक क्षेत्रों में चीनी निवेश को सीमित कर खुद को ही नुकसान पहुँचाया है। उनका कहना है कि भारत सोलर सेल, सेमीकंडक्टर और इलेक्ट्रिक बैटरियों के मामले में अभी भी चीन पर निर्भर है और चीन से निवेश लेने से दीर्घकालिक आत्मनिर्भरता को बल मिल सकता है। उनका यह भी तर्क है कि पूरी तरह बहिष्कार की नीति अव्यावहारिक है। चीन और अमेरिका दोनों भारतीय आर्थिक ढांचे में गहराई से समाए हुए हैं। ऐसे में केवल भावनात्मक नारों से दूरगामी नीति नहीं बनाई जा सकती।

अमेरिका का दबाव और भारत की स्थिति क्या है?

जहाँ अमेरिका बार-बार भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता है चाहे वो रूस से तेल खरीद हो या व्यापार समझौता, वहीं भारत ने यह दिखाया है कि वह अब दबाव में झुकने वाला नहीं है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट किया है कि भारत के किसानों और उपभोक्ताओं के हितों से कोई समझौता नहीं होगा। लेकिन साथ ही भारत को यह भी देखना होगा कि वो कब और कहां लचीलापन दिखा सकता है, ताकि वैश्विक साझेदारी मजबूत हो सके।

भारत के लिए अमेरिका और चीन दोनों ही ज़रूरी हैं, एक टेक्नोलॉजी और कूटनीतिक साझेदार के रूप में, तो दूसरा उत्पादन और व्यापार में। भारत को इन दोनों के साथ रिश्ते निभाने हैं, लेकिन अपनी शर्तों पर। अमेरिकी टैरिफ हों या चीनी आयात भारत को न तो घुटना टेकना है, न आंख मूंद लेनी है। रणनीति वही टिकेगी जो व्यावहारिक हो, आत्मनिर्भर भी और वैश्विक रूप से जुड़ी भी।

0 comments:

Post a Comment