कैसे बना चीन “रेयर अर्थ मिनरल्स” का बादशाह
चीन ने इस क्षेत्र में अपनी बढ़त किसी संयोग से नहीं, बल्कि लंबी रणनीति से हासिल की है। 1980 के दशक में जब दुनिया इन खनिजों की अहमियत को पूरी तरह नहीं समझती थी, तब चीन ने इनके खनन और प्रोसेसिंग की बुनियाद डाल दी थी। सस्ते श्रम, सरकारी निवेश और आक्रामक नीतियों के सहारे उसने धीरे-धीरे बाजार पर कब्जा कर लिया।
आज स्थिति यह है कि वैश्विक उत्पादन का लगभग 70% से अधिक हिस्सा चीन से आता है, और रिफाइनिंग व प्रोसेसिंग का 90% से भी ज्यादा काम वहीं होता है। अमेरिका, जापान या यूरोप सभी को किसी न किसी स्तर पर चीन पर निर्भर रहना पड़ता है।
भारत के पास संसाधन तो हैं, लेकिन...
भारत के पास रेयर अर्थ मिनरल्स का दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा भंडार है। करीब 7 मिलियन टन, यानी वैश्विक रिजर्व का लगभग 6-7 प्रतिशत। तमिलनाडु, केरल, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और गुजरात जैसे तटीय इलाकों में इन खनिजों की पर्याप्त मात्रा पाई जाती है। इसके अलावा राजस्थान और मध्य प्रदेश में हार्ड-रॉक संसाधनों की भी पहचान हो रही है। लेकिन चुनौती सिर्फ भंडार की नहीं है बल्कि उसे निकालने, शुद्ध करने और तकनीकी रूप से उपयोगी बनाने की क्षमता विकसित करने की है। अभी भारत का वैश्विक उत्पादन में हिस्सा केवल 1% है।
भारत की रणनीति: आत्मनिर्भर बनने की दिशा में कदम
भारत सरकार ने 2025 तक “नेशनल क्रिटिकल मिनरल्स मिशन” शुरू किया है, जिसका उद्देश्य इन महत्वपूर्ण खनिजों की खोज, खनन और प्रोसेसिंग की पूरी पारिस्थितिकी (ecosystem) विकसित करना है। इसके लिए करीब ₹34,000 करोड़ का फंड रखा गया है। केंद्र सरकार इसके साथ निजी क्षेत्र और विदेशी साझेदारियों को भी जोड़ रही है।
साल 2023 में भारत ने 24 महत्वपूर्ण खनिजों की सूची जारी की, जिनमें रेयर अर्थ तत्व भी शामिल हैं। इसके अलावा भारत “मिनरल सिक्योरिटी पार्टनरशिप” जैसी वैश्विक पहलों में अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ साझेदार बना है, ताकि सप्लाई चेन को सुरक्षित और चीन पर निर्भरता को कम किया जा सके।

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