कम विस्फोटक शक्ति, ज़्यादा जानलेवा रेडिएशन
न्यूट्रॉन बम को तकनीकी रूप से "एनहैंस्ड रेडिएशन वेपन" कहा जाता है। इसकी खासियत यह थी कि इसमें विस्फोटक शक्ति पारंपरिक परमाणु बम की तुलना में कम होती है, लेकिन इससे निकलने वाला न्यूट्रॉन रेडिएशन कहीं अधिक घातक होता है। यह रेडिएशन इंसानों और अन्य जैविक ऊत्तकों को कुछ ही क्षणों में नष्ट कर सकता है, जबकि इमारतें और बुनियादी ढांचे लगभग जस के तस रह जाते हैं।
अमेरिकी वैज्ञानिक ने की थी शुरुआत
इस जानलेवा हथियार की योजना सबसे पहले 1950 में अमेरिकी वैज्ञानिक सैमुअल कोहेन ने बनाई थी। इसका परीक्षण 1960 के दशक में शुरू हुआ और 1963 में अमेरिका ने इसका सफल परीक्षण भी कर लिया। 1970 और 1980 के दशक में इस बम को पूरी तरह विकसित कर लिया गया।
शीत युद्ध का 'कैपिटलिस्ट बम'
न्यूट्रॉन बम को विशेष रूप से सोवियत टैंकों को रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया था। यही कारण था कि इसे 'कैपिटलिस्ट बम' की उपाधि दी गई, क्योंकि इसका मुख्य उद्देश्य दुश्मन की सेना और जनशक्ति को खत्म करना था, ना कि इन्फ्रास्ट्रक्चर को। अमेरिका ने इसे शीत युद्ध के दौरान यूरोप में तैनात करने की योजना भी बनाई थी, लेकिन जब पश्चिमी यूरोपीय देशों को इसका पता चला तो उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया।
महंगे तत्व और भारी लागत
न्यूट्रॉन बम को बनाने के लिए ड्यूटेरियम और ट्रिटियम जैसे दुर्लभ और महंगे आइसोटोप्स की जरूरत पड़ती थी। यही कारण था कि इसके निर्माण और रखरखाव में भारी खर्च आता था। साथ ही, इसका असर भी कुछ किलोमीटर के दायरे तक ही सीमित था, जिससे यह बड़े स्तर पर प्रभावी नहीं माना गया।
पूरी तरह बंद कर दिया गया निर्माण
इस हथियार के खर्च और विवादों को देखते हुए अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने 7 अप्रैल 1978 को इसके निर्माण पर रोक लगा दी। अंततः शीत युद्ध के समाप्त होने के साथ ही 1990 में न्यूट्रॉन बम प्रोग्राम को पूरी तरह से बंद कर दिया गया।
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