ब्रेटन वुड्स से शुरुआत: डॉलर की अंतर्राष्ट्रीय बढ़त
1944 में पारित ब्रेटन वुड्स समझौते ने अमेरिकी डॉलर को वैश्विक व्यापार का केंद्र बना दिया। इसके बाद लगभग हर देश ने अपनी मुद्रा को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले निर्धारित करना शुरू किया। भारत में भी यही हुआ। और यहीं से डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट की कहानी शुरू हुई।
रुपये का अवमूल्यन: आर्थिक नीतियों और वैश्विक प्रभाव
स्वतंत्रता के बाद भारत ने योजना आधारित अर्थव्यवस्था अपनाई। लेकिन जैसे-जैसे व्यापार घाटा बढ़ता गया और विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ा, सरकार को समय-समय पर रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा। प्रमुख वर्षों में हुए बदलाव इस प्रकार हैं।
1949 में पहला आधिकारिक अवमूल्यन हुआ, जब डॉलर की दर ₹3.30 से बढ़कर ₹4.76 हो गई। 1966 में एक और बड़ा झटका लगा, जब डॉलर की यह दर ₹7.50 तक पहुँच गई। 1991 में रुपया डॉलर के मुकाबले ₹17.90 तक गिर गया। इसके बाद मुद्रा बाजारों में विनिमय दर बाज़ार के हिसाब से तय होने लगी, जिससे उतार-चढ़ाव और बढ़ गया।
2000 के बाद: डॉलर की मज़बूती, रुपया की चुनौती
नई सदी में प्रवेश के साथ ही डॉलर ने दुनियाभर में अपनी स्थिति और मजबूत की, जबकि रुपया वैश्विक बाजार, तेल की कीमतों, विदेशी निवेश, और राजनीतिक स्थिरता जैसे कारकों के चलते अस्थिर होता रहा और डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर होता गया।
2000 में 1 USD = ₹43.50 था। 2008 वैश्विक मंदी में यह दर ₹48.88 तक पहुँच गई, जबकि 2013 में पहली बार रुपया ₹60 से नीचे गिरा, वहीं, 2022 के अंत तक, दर ₹81.16 तक पहुँच गई, जबकि 2025 में, 1 अमेरिकी डॉलर की कीमत लगभग ₹86.71 तक दर्ज की गई। यह गिरावट केवल भारत की कमजोरी नहीं दर्शाती, बल्कि डॉलर की वैश्विक माँग और अन्य देशों की मुद्राओं के मुकाबले भी उसकी स्थिरता का प्रतीक है।
डॉलर क्यों इतना मजबूत है?
अमेरिकी डॉलर को 'वैश्विक रिज़र्व मुद्रा' का दर्जा प्राप्त है। दुनिया के अधिकांश देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर रखते हैं। तेल जैसे संसाधनों का व्यापार भी आमतौर पर डॉलर में होता है। इसके अलावा, अमेरिका की राजनीतिक स्थिरता, अर्थव्यवस्था की विशालता और टेक्नोलॉजी में अग्रणी भूमिका डॉलर को एक मजबूत मुद्रा बनाए रखती है।
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