हाइपरसोनिक तकनीक की होड़: 4 देश सुपरपावर की ओर!

नई दिल्ली। 21वीं सदी के मध्य में जब वैश्विक शक्ति संतुलन फिर से परिभाषित हो रहा है, ऐसे में "हाइपरसोनिक तकनीक" ने अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक प्रतिस्पर्धा का रुख पूरी तरह बदल दिया है। दुनिया के चार बड़े देश — अमेरिका, रूस, चीन और भारत — इस उभरती हुई तकनीक में प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ में जुटे हैं। यह सिर्फ रक्षा क्षेत्र का विकास नहीं, बल्कि रणनीतिक दबदबे की नई परिभाषा बन चुका है।

हाइपरसोनिक तकनीक क्या है?

हाइपरसोनिक हथियार वे मिसाइल हैं जो ध्वनि की गति से पांच गुना (Mach 5) या उससे अधिक गति से यात्रा करते हैं। इस स्पीड पर ये पारंपरिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम को चकमा देने में सक्षम होते हैं, जिससे ये युद्ध के समीकरण को पूरी तरह बदल सकते हैं।

1 .रूस: सबसे आगे, लेकिन चुनौतियाँ

रूस ने 2019 में 'Avangard' हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल को ऑपरेशनल घोषित कर दुनिया को चौंका दिया था। इसके बाद 'Kinzhal' मिसाइल को यूक्रेन युद्ध में प्रयोग कर इस तकनीक की प्रभावशीलता को दिखाया गया। हालांकि, पश्चिमी प्रतिबंधों और आर्थिक दबावों ने इसके अनुसंधान व उत्पादन क्षमता को कुछ हद तक प्रभावित किया है।

2 .चीन: तेजी से उभरती हुई शक्ति

चीन ने DF-ZF हाइपरसोनिक ग्लाइड व्हीकल के साथ एक मजबूत संदेश दिया है। उसके परीक्षणों और अंतरिक्ष-आधारित हाइपरसोनिक मिसाइलों की खबरें अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए चिंता का विषय हैं। तकनीकी गोपनीयता और लगातार बढ़ती सैन्य फंडिंग के बल पर चीन इस दौड़ में काफी आगे निकल चुका है।

3 .अमेरिका: तकनीकी नेतृत्व की कोशिश

अमेरिका ने शुरुआत में हाइपरसोनिक तकनीक को धीमी गति से अपनाया, लेकिन अब DARPA और अन्य रक्षा एजेंसियां इस क्षेत्र में भारी निवेश कर रही हैं। अमेरिका की रणनीति "ऑफेंस" के साथ-साथ "डिफेंस" यानी हाइपरसोनिक हथियारों के साथ-साथ उन्हें रोकने वाली तकनीकों पर भी ध्यान केंद्रित करने की है। 2025 तक अमेरिका के कई हाइपरसोनिक सिस्टम ऑपरेशनल हो सकते हैं।

4 .भारत: आत्मनिर्भरता की दिशा में मजबूत कदम

भारत ने DRDO (रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) के नेतृत्व में हाइपरसोनिक टेक्नोलॉजी डेमोंस्ट्रेटर व्हीकल (HSTDV) का सफल परीक्षण कर दुनिया को अपनी क्षमता दिखाई है। ब्रह्मोस-2 जैसी परियोजनाएं रूस के सहयोग से विकसित हो रही हैं, जो भारत को इस दौड़ में स्थायी स्थान दिला सकती हैं। भारत की खास बात यह है कि वह इस तकनीक को 'डिटरेंस' यानी प्रतिरोधक क्षमता के रूप में विकसित कर रहा है।

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