भारत-चीन व्यापार फिर से चालू: इतिहास दोहराने को तैयार

नई दिल्ली। भारत और चीन के बीच लंबे समय से जमी बर्फ अब पिघलने लगी है। हाल ही में चीन के विदेश मंत्री वांग यी की भारत यात्रा के दौरान जो सहमति बनी, वह केवल कूटनीतिक वार्ताओं की नहीं, बल्कि लोगों की ज़िंदगियों से जुड़ी एक बड़ी पहल की है। यह सहमति भारत-चीन सीमा व्यापार को फिर से शुरू करने को लेकर है, जो 1962 के युद्ध के बाद बंद हो गया था।

लिपुलेख दर्रे से नई शुरुआत

इस व्यापार की बहाली की बात करें तो सबसे प्रमुख नाम सामने आता है लिपुलेख दर्रे का। उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में स्थित यह दर्रा तिब्बत को जोड़ता है और कैलाश मानसरोवर यात्रा का भी अहम मार्ग रहा है। भारत, नेपाल और चीन की त्रिसंधि पर स्थित इस क्षेत्र से न सिर्फ व्यापार होता था, बल्कि यह आध्यात्मिक और सांस्कृतिक यात्रा का केंद्र भी था।

यहाँ के लगभग 15 गांव सीधे तौर पर सीमा व्यापार पर निर्भर थे, और मुनस्यारी समेत पूरे कुमाऊं मंडल की स्थानीय अर्थव्यवस्था को यह व्यापार जीवंत बनाए रखता था। टनकपुर, हल्द्वानी और रामनगर जैसे शहरों की मंडियों से व्यापारी माल लेकर तिब्बत जाते और वहाँ से ऊन, भेड़-बकरियाँ आदि लेकर लौटते।

भूले-बिसरे रास्ते फिर से प्रासंगिक

चमोली जिले के माणा और नीति गांव, और उत्तरकाशी की नेलांग घाटी, ये वो दर्रे हैं जो सिर्फ भौगोलिक सीमाएँ नहीं जोड़ते, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत से भी जुड़े हैं। माणा को आज "देश का पहला गांव" कहा जाता है, लेकिन कभी यह व्यापारिक गतिविधियों का अंतिम भारतीय पड़ाव होता था। नीति से तकलाकोट और गार्टोक जैसे तिब्बती व्यापार केंद्रों तक सामान पहुंचता था। वहीं, नेलांग घाटी का उपयोग भोटिया जनजाति अपने पारंपरिक व्यापारिक मार्ग के रूप में करती थी।

अब नई सहमति से क्या बदलेगा?

अब जबकि फिर से व्यापार शुरू करने की बात हो रही है, तो उम्मीद की एक नई किरण दिखाई दे रही है। यह सिर्फ दो देशों के बीच आर्थिक गतिविधियों का पुनः आरंभ नहीं है, बल्कि उन लोगों के जीवन में उम्मीदें लौटने की शुरुआत है जिनकी पीढ़ियाँ इस व्यापार से जुड़ी रही हैं। साथ ही यह क्षेत्रीय स्थिरता, आपसी विश्वास और सांस्कृतिक मेल-जोल का नया अध्याय भी बन सकता है।

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