भारत का स्पष्ट जवाब: राष्ट्रीय हित सर्वोपरि
विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने स्पष्ट कहा है कि भारत की ऊर्जा सुरक्षा उसकी प्राथमिकता है। ऐसे में अगर रूस से सस्ता कच्चा तेल मिलता है, तो उसे खरीदना कोई अनैतिक या आपत्तिजनक निर्णय नहीं, बल्कि एक व्यावहारिक कदम है। उनका कहना था कि भारत अपने नागरिकों को महंगाई से बचाने और आर्थिक स्थिरता बनाए रखने के लिए हर वैकल्पिक रास्ता अपनाएगा।
अमेरिका की ‘चुपचाप खरीद’, भारत की ‘खुली नीति’
वास्तविकता यह है कि अमेरिका खुद रूस से यूरेनियम हेक्साफ्लोराइड, पैलेडियम, उर्वरक और अन्य रसायन आयात करता रहा है। खासतौर पर अमेरिका का परमाणु उद्योग, रूसी यूरेनियम पर बड़ी हद तक निर्भर है। फिर भी भारत पर सार्वजनिक रूप से दबाव डालना इस बात को दर्शाता है कि वैश्विक राजनीति में ‘दोहरे मानदंड’ अब भी जिंदा हैं।
यूरोपीय संघ के आंकड़े खुद सच बयां करते हैं
भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, 2023 में यूरोपीय संघ और रूस के बीच 17.2 बिलियन यूरो का व्यापार हुआ था, जबकि 2024 में यह बढ़कर 67.5 बिलियन यूरो तक पहुंच गया। इन आंकड़ों से साफ है कि जिन देशों ने रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंध लगाए, वे भी अपने आर्थिक हितों की खातिर व्यापार करना नहीं भूले।
भारत की स्थिति: मजबूरी नहीं, ज़िम्मेदारी
भारत ने न केवल अपनी जरूरतों के हिसाब से रूस से तेल खरीदा, बल्कि इस प्रक्रिया को पारदर्शी और नियमसम्मत रखा। भारत ने कभी भी पश्चिमी देशों की तरह गुपचुप व्यापार नहीं किया। यहां तक कि जब पारंपरिक आपूर्तिकर्ता देशों से तेल महंगा हो गया, तब भारत ने रूस से सस्ता तेल लेकर घरेलू बाजार को स्थिर बनाए रखा।
पश्चिमी देशों की आलोचना: रणनीतिक दबाव या नैतिकता?
यह सवाल अब बार-बार उठ रहा है कि क्या पश्चिमी देशों की भारत पर की जा रही आलोचना वास्तव में नैतिक है या सिर्फ एक रणनीतिक दबाव? जब वही देश जो खुद रूस से व्यापार कर रहे हैं, भारत को नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगें, तो यह राजनीतिक पाखंड नहीं तो और क्या है?
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