ब्रेेटन वुड्स समझौता: डॉलर की शुरुआत वैश्विक राज का
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद 1944 में अमेरिका के ब्रेटन वुड्स में एक समझौता हुआ, जिसमें तय किया गया कि सभी प्रमुख वैश्विक मुद्राएं अमेरिकी डॉलर से जुड़ी होंगी, और डॉलर को सोने से जोड़ा जाएगा (1 औंस सोना = 35 डॉलर)। इससे डॉलर बना विश्व की ‘एंकर करंसी’, यानी हर देश की मुद्रा का मूल्य डॉलर से तय होने लगा।
हालांकि 1971 में अमेरिका ने "Gold Standard" को खत्म कर दिया, लेकिन तब तक डॉलर की पकड़ इतनी मज़बूत हो चुकी थी कि कोई देश उससे अलग नहीं हो पाया और आज के समय पूरी दुनिया डॉलर के गिरफ्त में हैं और अमेरिका इसी की वजह से दुनिया को धौंस दिखाता रहता हैं।
पेट्रोडॉलर सिस्टम: चालाकी की दूसरी चाल
1970 के दशक में अमेरिका ने सऊदी अरब सहित कई OPEC देशों से एक समझौता किया, जिसके अनुसार तेल सिर्फ डॉलर में ही बेचा जाएगा। इसका मतलब ये हुआ कि अगर भारत, चीन या कोई और देश तेल खरीदना चाहता है, तो उसे पहले डॉलर खरीदना होगा। इसने डॉलर की डिमांड को स्थायी बना दिया। दुनिया भर में हर देश को व्यापार के लिए डॉलर की जरूरत पड़ने लगी और यही अमेरिका की असली चाल थी।
वैश्विक संस्थाओं पर अमेरिकी पकड़
अमेरिका न सिर्फ मुद्रा के रूप में डॉलर को नियंत्रित करता है, बल्कि आईएमएफ (IMF), वर्ल्ड बैंक और SWIFT सिस्टम जैसे वैश्विक संस्थानों में भी उसका वर्चस्व है। अगर कोई देश अमेरिकी नीतियों के खिलाफ जाता है, तो उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए जाते हैं, जिससे उसके डॉलर एक्सेस पर रोक लग सकती है। उदाहरण के तौर पर, रूस, ईरान और वेनेज़ुएला जैसी अर्थव्यवस्थाएं इसका शिकार बन चुकी हैं।
डॉलर को हटाना क्यों मुश्किल है?
कई देश जैसे चीन, रूस, ब्राज़ील (ब्रिक्स समूह) ने डॉलर के विकल्प खोजने की कोशिश की है। जैसे युआन या साझा ब्रिक्स करेंसी। लेकिन इसमें कुछ बड़ी अड़चनें हैं। जैसे की अन्य करेंसियां डॉलर जितनी स्थिर और भरोसेमंद नहीं हैं। वहीं, दुनिया का वित्तीय ढांचा अभी भी डॉलर पर आधारित है। डॉलर में लेन-देन के लिए पर्याप्त मात्रा में लिक्विडिटी और बाजार उपलब्ध है।
भारत का क्या रुख है?
भारत ने हाल के वर्षों में रुपये में व्यापार को बढ़ावा देने की दिशा में कदम उठाए हैं। रूस-भारत व्यापार में कुछ लेन-देन रुपये और रूबल में हो रहे हैं। लेकिन जब तक वैश्विक स्वीकृति और स्थिरता नहीं मिलती, डॉलर का विकल्प बन पाना मुश्किल है।
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