जेट इंजन किसी भी लड़ाकू विमान का 'दिल' होता है। इसकी तकनीक जटिल, गोपनीय और रणनीतिक रूप से बेहद संवेदनशील मानी जाती है। आइए जानते हैं वे 5 प्रमुख कारण, जिनकी वजह से भारत आज भी इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं बन पाया है।
1. जटिल और उच्च स्तरीय तकनीक की कमी
जेट इंजन बनाना केवल मेटल पार्ट्स को जोड़ने का काम नहीं है। इसमें एयरोडायनामिक्स, हाई टेम्परेचर मटेरियल्स, टर्बाइन ब्लेड डिजाइन, थर्मल कोटिंग्स, और कंप्यूटर-नियंत्रित फ्यूल सिस्टम जैसी उन्नत तकनीकों की जरूरत होती है। भारत ने इस दिशा में कोशिशें की हैं, लेकिन अब तक ये तकनीकें पूरी तरह विकसित नहीं हो सकीं।
2. अनुचित और असंगत निवेश
जहां अमेरिका, रूस, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश दशकों से अपने इंजन R&D (अनुसंधान और विकास) में भारी निवेश करते रहे हैं, वहीं भारत में लंबे समय तक इस क्षेत्र को वह प्राथमिकता नहीं मिली। DRDO और GTRE जैसी संस्थाएं सीमित बजट और संसाधनों के साथ काम करती रहीं, जिससे प्रगति धीमी रही।
3. अनुभव की कमी और ट्रायल में असफलताएं
भारत ने "कावेरी इंजन" परियोजना की शुरुआत 1986 में की थी, जो तेजस के लिए बनाया जा रहा था। हालांकि, कई सालों की मेहनत और हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद यह इंजन अब तक सफल नहीं हो सका। कावेरी इंजन थ्रस्ट, विश्वसनीयता और प्रदर्शन के मानकों पर खरा नहीं उतर पाया, जिससे भारत को विदेशी इंजनों पर निर्भर रहना पड़ा।
4. विदेशी सहयोग की राजनीतिक और तकनीकी सीमाएं
भारत ने कई बार फ्रांस, रूस और अमेरिका से इंजन तकनीक ट्रांसफर करने की कोशिश की, लेकिन इस क्षेत्र में तकनीक साझा करना आसान नहीं होता। यह 'स्ट्रेटेजिक टेक्नोलॉजी' मानी जाती है, जिसे देश अक्सर साझा नहीं करते। इसके अलावा, जब कुछ साझेदार तैयार भी हुए, तब भी सहयोग सीमित रहा या शर्तों के साथ आया।
5. स्किल्ड मैनपावर और इंडस्ट्रियल बेस का अभाव
जेट इंजन बनाने के लिए हाई-स्किल इंजीनियरिंग और अत्याधुनिक मैन्युफैक्चरिंग इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है। भारत का औद्योगिक आधार (industrial base) अभी तक उस स्तर का नहीं बन पाया है जहां जटिल गैस टर्बाइन इंजन का बड़े पैमाने पर डिजाइन और निर्माण संभव हो सके। हालांकि पिछले कुछ सालों में भारत ने काफी अच्छी तरक्की हैं।
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