दुनिया में एक नहीं, अब होगी 3 बड़ी महाशक्तियां

नई दिल्ली। 20वीं सदी के उत्तरार्ध तक दुनिया में दो ध्रुवीय शक्ति संरचना थी — अमेरिका और सोवियत संघ। शीत युद्ध के अंत के बाद अमेरिका एकमात्र महाशक्ति के रूप में उभरा, और "एकध्रुवीय विश्व" की अवधारणा प्रचलित हो गई। लेकिन अब 21वीं सदी में हम जिस वैश्विक व्यवस्था को देख रहे हैं, वह धीरे-धीरे "त्रिध्रुवीय शक्ति संतुलन" की ओर बढ़ रही है। इसमें अमेरिका के साथ-साथ चीन और भारत वैश्विक मंच पर प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।

1. अमेरिका – स्थापित वैश्विक नेतृत्व

अमेरिका दशकों से वैश्विक राजनीति, रक्षा, अर्थव्यवस्था और तकनीक में अग्रणी रहा है। उसके पास दुनिया की सबसे मजबूत सैन्य शक्ति, तकनीकी नवाचार (AI, स्पेस रिसर्च), और डॉलर जैसी वैश्विक मुद्रा है। हालांकि हाल के वर्षों में अमेरिका की प्रभावशक्ति को चुनौती मिल रही है, फिर भी उसकी वैश्विक संस्थाओं पर पकड़ और रणनीतिक गठबंधन (जैसे NATO, QUAD) उसे एक मजबूत स्तंभ बनाए रखते हैं।

2. चीन – उभरती वैश्विक शक्ति

चीन ने पिछले 30 वर्षों में तेज़ी से आर्थिक विकास किया है। 'वन बेल्ट वन रोड' (OBOR) जैसी परियोजनाओं के ज़रिए वह अफ्रीका, एशिया और यूरोप में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है। तकनीकी क्षेत्र में (5G, इलेक्ट्रिक वाहन, डिजिटल पेमेंट्स) उसकी तेज़ी से बढ़ती उपस्थिति और दक्षिण चीन सागर में उसकी सैन्य मौजूदगी इस बात का संकेत हैं कि वह केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामरिक रूप से भी वैश्विक शक्ति बनना चाहता है।

3. भारत – नई शक्ति का उदय

भारत का उदय एक शांति-प्रिय लोकतंत्र के रूप में हो रहा है, जिसकी जनसंख्या अब दुनिया में सबसे अधिक है और जो तेज़ी से एक आर्थिक महाशक्ति बनता जा रहा है। भारत की IT शक्ति, उद्योगों में आत्मनिर्भरता (Make in India), अंतरिक्ष मिशन (चंद्रयान, गगनयान) और राजनयिक संतुलन नीति (Russia-अमेरिका-चीन के बीच संतुलन) उसे एक तीसरे महाशक्ति स्तंभ के रूप में स्थापित कर रहे हैं। भारत की युवा जनसंख्या और लोकतांत्रिक मूल्य उसे भविष्य की निर्णायक शक्ति बना सकते हैं।

क्या यह शक्ति संतुलन स्थायी होगा?

कई रिपोर्ट ये बतलाती हैं की तीन शक्तियों के उभार से दुनिया में संतुलन और असंतुलन दोनों पैदा हो सकते हैं। जहां एक ओर यह किसी एक देश के प्रभुत्व को चुनौती देगा, वहीं दूसरी ओर सहयोग और टकराव की संभावनाएं भी बनी रहेंगी। महाशक्तियों के बीच टेक्नोलॉजी, ट्रेड और जियोपॉलिटिक्स के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा और सहयोग दोनों बढ़ेंगे। जैसे वर्त्तमान में अमेरिका और चीन के बीच देखने को मिल रहा हैं।

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