यूपी पंचायत चुनाव: आरक्षण को लेकर 3 बड़ी बातें

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में 2026 के पंचायत चुनाव सिर्फ सत्ता की लड़ाई नहीं बल्कि आरक्षण के नए समीकरणों का भी बड़ा इम्तिहान बनने जा रहे हैं। चुनावी लड़ाई में हर वोटर, प्रशासन और राजनीतिक दल इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि इस बार किसकी पंचायत, किसके नाम होगी। इस अनिश्चितता की जड़ में छुपा है ‘आधार वर्ष’ का सवाल, जो आरक्षण की रणनीति तय करने में अहम भूमिका निभाता है और जिसके फैसले के लिए अब कैबिनेट की मुहर का इंतजार है।

1. आरक्षण के लिए ‘आधार वर्ष’ का निर्धारण

पंचायत चुनावों में आरक्षण तय करने से पहले सबसे महत्वपूर्ण होगा यह तय करना कि किस वर्ष को आधार बनाया जाएगा। पिछले चुनावों में 2015 को आधार वर्ष माना गया था, जिसके अनुसार 2021 में पंचायत सीटों का आरक्षण हुआ था। आधार वर्ष का चुनाव इसलिए जरूरी होता है ताकि आरक्षण में एक ही वर्ग का बार-बार प्रभुत्व न हो और सत्ता का संतुलन बना रहे। 2026 के चुनावों के लिए यह फैसला कि आधार वर्ष 2015 होगा या 2021 या कोई और, आगामी आरक्षण रणनीति को पूरी तरह से प्रभावित करेगा।

2. आरक्षण का चक्रीय मॉडल: संतुलन और समावेशन

यूपी पंचायत चुनावों में आरक्षण एक चक्रीय रोटेशन प्रणाली पर आधारित है, जिसमें अनुसूचित जनजाति की महिलाएं, अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति की महिलाएं, अनुसूचित जाति, पिछड़े वर्ग की महिलाएं, पिछड़ा वर्ग और सामान्य वर्ग के बीच पदों का आवंटन घूम-घूमकर किया जाता है। इस प्रणाली का उद्देश्य पंचायतों में सभी वर्गों को समान अवसर देना और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करना है। यह रोटेशन हर चुनाव में बदलता रहता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि किसी एक वर्ग या व्यक्ति का सत्ता पर लगातार कब्जा न हो। इससे नए चेहरे उभरते हैं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नयी ऊर्जा मिलती है।

3. आरक्षण का गणित और प्रभाव

आरक्षण तय करने की प्रक्रिया में ग्राम पंचायतों को उनकी अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग की जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर अवरोही क्रम में रखा जाता है। जिन पंचायतों ने पिछले आधार वर्ष में आरक्षण नहीं पाया होता, उन्हें प्राथमिकता दी जाती है। इसके साथ ही महिलाओं के लिए कुल पदों का कम से कम 33% आरक्षण अनिवार्य है, जिससे पंचायतों में महिलाओं की भागीदारी बढ़े और उनके नेतृत्व को मजबूती मिले।

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