बता दें की इन सभी के पीछे भारत के वैज्ञानिक संस्थान — ISRO (इसरो) और DRDO (डीआरडीओ) — की दशकों की मेहनत और तकनीकी आत्मनिर्भरता है। लेकिन जब बात जेट इंजन बनाने की आती है, तो भारत आज भी विदेशी तकनीक पर निर्भर है। ऐसे में सवाल उठता है: आख़िर क्यों?
रॉकेट और मिसाइल इंजनों में भारत की उपलब्धियाँ
भारत का रॉकेट इंजन विकास कार्यक्रम 1960 और 70 के दशक में शुरू हुआ था। इसरो ने पहले PSLV और फिर GSLV जैसे लॉन्च व्हीकल्स को सफलतापूर्वक विकसित किया। क्रायोजेनिक इंजन जैसी जटिल तकनीक में भी भारत ने विदेशी प्रतिबंधों के बावजूद आत्मनिर्भरता हासिल कर ली। इसी तरह डीआरडीओ ने सॉलिड और लिक्विड-फ्यूल वाले मिसाइल इंजन बनाकर भारत को दुनिया की अग्रणी मिसाइल-निर्माण शक्तियों में खड़ा कर दिया।
जेट इंजन: भारत की सबसे कमजोर कड़ी क्यों?
1. तकनीकी जटिलता और उच्च तापमान सहिष्णुता
जेट इंजन विशेष रूप से लड़ाकू विमानों के लिए बनाए जाते हैं, जहाँ इंजन को 2500°C तक के तापमान पर काम करना होता है और वह भी बेहद तेज गति पर। इसके लिए जिन मटेरियल्स (जैसे कि सुपरएलॉय) और कोटिंग्स की जरूरत होती है, उनकी तकनीक भारत के पास अभी पूरी तरह से नहीं है।
2. मेटलर्जी और मटेरियल साइंस में पिछड़ापन
जेट इंजन बनाने के लिए विशेष प्रकार के धातु मिश्रण और टरबाइन ब्लेड्स की आवश्यकता होती है, जो ताप और घर्षण को सह सकें। भारत में अभी भी इस स्तर की मेटलर्जी तकनीक पूरी तरह विकसित नहीं हो सकी है। हालांकि भारत के इंजीनियर और वैज्ञानिक इसपर काम कर रहे हैं।
3. दीर्घकालिक निवेश और अनुभव की कमी
जहाँ रॉकेट और मिसाइल विकास पर सरकार ने दशकों तक लगातार निवेश किया, वहीं जेट इंजन विकास को वह निरंतरता नहीं मिली। HAL (हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड) और GTRE (Gas Turbine Research Establishment) ने कोशिशें की हैं, जैसे कावेरी इंजन परियोजना, लेकिन यह परियोजना अपेक्षित सफलता नहीं दिला सकी।
4. विदेशी निर्भरता और रणनीतिक अड़चनें
लड़ाकू विमानों के इंजन को बनाने की तकनीक दुनिया के कुछ ही देशों के पास है — अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस । ये देश इस तकनीक को साझा नहीं करते क्योंकि यह रणनीतिक संपत्ति (Strategic Asset) मानी जाती है। भारत को अब तक कोई भी देश पूरी तरह से इंजन टेक्नोलॉजी ट्रांसफर देने को तैयार नहीं हुआ।
जेट इंजन को लेकर क्या है भविष्य की दिशा?
अब भारत सरकार ने 'आत्मनिर्भर भारत' अभियान के तहत जेट इंजन के विकास को फिर से प्राथमिकता दी है। अमेरिका के साथ GE-F414 इंजन निर्माण की योजना बन रही है, जिसमें टेक्नोलॉजी ट्रांसफर की बात की जा रही है। साथ ही DRDO और HAL को फिर से कावेरी प्रोजेक्ट के एक उन्नत संस्करण पर काम करने का मौका मिला है। इसके अलावा भारत में निजी क्षेत्र भी अब इंजन निर्माण में सहयोग देने में लगे हैं। यह एक सकारात्मक संकेत है।
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