जेट इंजन: 1930 में बनी तकनीक, आज भी केवल 4 देशों के पास

नई दिल्ली। दुनिया में पहली बार साल 1930 में जेट इंजन का पेटेंट कराया गया था। यह वह तकनीक थी जिसने हवाई यात्रा की दुनिया को पूरी तरह बदल दिया। लेकिन इस ऐतिहासिक खोज के 95 साल बाद भी जेट इंजन बनाने की तकनीक केवल चार देशों – अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और रूस – तक सीमित है। ये वही देश हैं जो आज भी अपने दम पर लड़ाकू विमानों के लिए जेट इंजन डिजाइन और निर्माण कर पाते हैं।

चीन अब भी आत्मनिर्भर नहीं

हालांकि चीन ने पिछले कुछ वर्षों में अपने जेट इंजन बनाने के प्रयास तेज़ किए हैं, लेकिन आज भी वह पूरी तरह आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है। चीन द्वारा बनाए गए कई इंजन रिवर्स इंजीनियरिंग, यानी दूसरे देशों की तकनीक की नकल पर आधारित हैं। यही वजह है कि चीन को आज भी अपने लड़ाकू विमानों, खासकर J-20 स्टील्थ फाइटर जैसे आधुनिक विमानों के लिए, रूसी इंजन पर निर्भर रहना पड़ता है।

तकनीक है बेहद जटिल

जेट इंजन बनाना सिर्फ एक टेक्नोलॉजी नहीं, बल्कि एक अत्यंत जटिल विज्ञान और इंजीनियरिंग का मिश्रण है। इसकी पेचीदगी को हम नागरिक विमानों, जैसे कि बोइंग 747, से समझ सकते हैं। इस विमान के एक इंजन में लगभग 40,000 पुर्जे होते हैं। ये सभी पुर्जे एक साथ मिलकर ऐसी प्रणाली बनाते हैं जो उड़ान के दौरान अत्यधिक दबाव और तापमान को सहन कर सके।

जेट इंजन का तापमान उड़ान के दौरान 1400 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है। ऐसे में इस तापमान को सहने वाले पुर्जों को बनाना और उन्हें लंबे समय तक काम करने लायक बनाए रखना एयरोस्पेस मटेरियल साइंस की चरम सीमा है।

भारत की स्थिति क्या है?

भारत भी पिछले दो दशकों से स्वदेशी जेट इंजन विकसित करने की दिशा में प्रयासरत है। GTRE (Gas Turbine Research Establishment) द्वारा विकसित किया गया ‘कावेरी इंजन’ अब तक लड़ाकू विमानों में सफलतापूर्वक उपयोग नहीं किया जा सका है। हालांकि इसकी टेस्टिंग की जा रही हैं।

अभी भी सीमित तकनीक, सीमित पहुंच

एक ओर जहां मोबाइल फोन और इंटरनेट की तकनीक ने दुनिया के लगभग हर देश तक पहुंच बना ली है, वहीं जेट इंजन जैसी रणनीतिक और सैन्य तकनीक आज भी मुट्ठीभर देशों के पास ही है। इसकी एक बड़ी वजह है – इसकी अत्यधिक जटिलता, मटेरियल साइंस की सीमाएं, और मल्टी-लेयर तकनीकी गोपनीयता।

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